...वो ''दुकानदारी'' तो बिक गई


खोजी पत्रकारिता में बिंदास पत्रकारों की कमी है। कोई माने न माने। मैंने तो यही महसूस किया है। मुगालते में रहने वालों की सूचि भी लम्बी है। फ़िर कुछ पत्रकार बंधू जो ख़ुद को कथित खोजी पत्रकार समझते हैं, को ख़ुद नही पता की ये विधा आख़िर आ कहा से गई।एक बंधू को हमने पढ़ा, वो कहते हैं मैं देश का पहला खोजी पत्रकार हूँ। भाई ये तो कमल हो गया? फ़िर वो कौन हैं जिन्होंने अपना तमाम जीवन इस विधा के नाम कर दिया। मैं बात कर रहा हूँ, आर. के. करंजिया की। क्या लाजवाब पत्रकार, धुन के धनी संपादक और परफेक्ट मेनेजर थे करान्जिया? हम तो जनाब कायल हैं उनकी पत्रकारिता के।पिछले पंद्रह दिनों में मैंने अपने बीसियों पत्रकार साथियों से करंजिया के बारे में जानना चाहा। पता चला बंधुओं ने तो नाम ही नही सुना है। एक वरिष्ठ साथी मिले जिन्होंने मेरे सवाल की लाज रखी। जिस पत्रकार के चालीस देशो के राष्ट्रअध्यक्षों से सीधे सम्बन्ध हुए। जिनके साप्ताहिक अखबार को पढने-खरीदने के लिए पाठको की कतारें लग जाती थी और जिनका अख़बार १९६०-१९७० के दशक में तीन लाख से जयादा प्रसार संख्या का दम रखता था को आज की पीढी ही नही, कथित खोजी पत्रकार भी नही जानते। अगर जानते तो ये ना लिखते की हम हैं जिन्होंने देश में खोजी पत्रकारिता शुरू की।वैसे मेरी जिज्ञासा करंजिया को लेकर कुछ ज्यादा थी सो मैंने एक कदम और बढाया। आर. के. करंजिया की बेटी रिता मेहता की तलाश शुरू की। मुंबई के कुछ पत्रकारों से संपर्क किया, कुछ इधरउधर फ़ोन मिलाये, पर कुछ पता नही चला।मुंबई प्रेस क्लब के अध्यक्ष से बात हुई। बोले, ''भाई वो दुकानदारी तो बिक गई...', अब कोई नही जनता उनका परिवार कहाँ है।''गरज हमारी थी और जिज्ञासा हमारे भीतर उफान मार रही थी, तो मज़बूरी थी उसे शांत करने और करंजिया के परिवार तक पहुँचने की। सो मुंबई में जहाँ तहां फ़ोन किए, एक बंधू ने उनकी बेटी की सेक्रेटरी का नम्बर दिया। बात भी हुई। वो खुस हुईं की कोई है जो भूले बिसरो को समेटना चाहता है. ...लेकिन इस प्रक्रिया में दो बातें अखरती रही, एक वो जिसमे देश का पहले खोजी पत्रकार होने का दम भरा गया था और एक वो जिसमे करंजिया के समर्पित जीवन को ''दुकानदारी'' कहने में झिझक तक नहीं हुई। यही तो बदनसीबी है उनकी जो अपनों के त्याग का गला इस मुगालते में दबा रहे हैं, ''कौन जनता है''।...मतलब वो नही तो हम सही।खुदा खैर बक्शे इन्हें, कहीं ऐसा न हो हम गुजर जायें और हमें भी दुकानदार कहने वालों की कमी न हो। ...पर इस ''दुकानदारी'' और ''क्रेडिट लेने'' के लिए जब करंजिया की ही बिसात बंधुओं ने नहीं बनने दी तो हमारी औकात ही क्या है?..लेकिन उस हीरो (करंजिया) को हमारा सलाम जिसे जानने की जिज्ञासा बढ़ ही रही है, कम नही हुई।

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2 comments:

रवि रतलामी said...

ब्लिट्ज का पाठक रहा हूं मैं. क्या सनसनी युक्त शीर्षकों से हर हफ़्ता आता था ब्लिट्ज. कई बार फुस और कई बार धारदार - अपने शीर्षकों की तरह खोजी खबरों के साथ. तहलका ने कुछ आस बंधाई थी, मगर मामला जमा नहीं. ब्लिट्ज जैसा आज भारत में शायद ही कोई अखबार हो अभी...

abhishek said...

बिल्कुल सही जा रहे हो भाई, वैसे यदि तुम हम से करंजिया का जिक्र करते तो शायद निराश नही होते,,, और रही दुकानदारी की बात तो पता नही कहने वाले ने तुम्हे किस सेंस मैं कहा होगा पर, मोटे अर्थों मैं तो हम सभी दुकानदार ही हैं, अच्छा है एक बदिया काम के लिए मेरी शुभ्क्म्नाये,,,,,