मंजिल के मददगार
देश के प्रतिष्ठित व्यावसायिक घरानों को जब सरकारी ताले खोलने होते हैं, तो उन्हें इन हुनरमंद चाबियों की जरूरत होती है। हुनरमंद चाबियां यानी 'कॉर्पोरेट जुगाड़'। ऐसे जुगाड़ जो किसी भी बड़ी कंपनी में ना नहीं सुनने वाले शीर्ष प्रबंधकों की हर व्यावसायिक मांग को पूरा करवाते हैं। सरकारी 'जुगाड़' लगाने, फाइलों पर चलने वाली ऐसी कलम जो करोड़ों का नुकसान करवा सकती है को मैनेज करने, देश चलाने वाले नेताओं से शीर्ष कॉर्पोरेटर्स की मुलाकातें करवाकर अहम फैसले करवाने और लॉबिंग में इनकी सबसे अहम भूमिका होती है। मीडिया से लेकर हर उस संसाधन का इस्तेमाल यह बेहतरी से करना जानते हैं, जिनकी जरूरत कॉर्पोरेट घरानों को कदम-कदम पर पड़ती है। अंबानी, टाटा सहित बड़े राजनेता इनके मार्गदर्शन पर अपने फैसले लेते और बदलते हैं।
6 comments:
kamaal kee jaankaaree de hai, nisandeh yahee hotaa hai vyaavsaayik neetiyon ko tay karne mein, aapkaa blog bhee khoobsurat hai, likhte rahein.
bahut khoob barkhurdaar
acha likha hai......infact jin logo ko shamil kiya isme unka chunaav acha rha. ye saare log hi to hai jo raajnetao ki thodi si lagaam pakadne koshish kar sakte hai...varna or koi soch bhi skata hai....
pahli baar aayaa aapke blog par, achcha laga ...jaankaari bhi aour aapke likhne ki sheli bhi achchi he.
badhaai
बहुत मेहनत से लिखा गया आलेख. मज़ा आ गया.
वैसे प्रवीण जी, आज़ादी के बाद हर क्षेत्र में इस तरह के लोगों की एक पौध पनपी है. मुझे याद आता है कि मैं जब सेवा निवृत्त हुआ था तो मेरे पास भी नौकरी के अनेक प्रस्ताव आए थे. पद नाम चाहे जो भी हो, नौकरी देने वालों की अपेक्षा यही थी कि मैं उनका 'मददगार' बनूं. अगर थोड़ा घटिया शब्द काम लेने की इच्छा हो तो दलाल या दल्ला भी कह सकते हैं.
दुष्यंत जी आपको अपने चिट्ठे पर पाकर बेहद अच्छा लगा। अजय जी, दुर्गाप्रसाद जी , शुचिता और अमिताभ जी हौसला अफजाही के लिए आभार। वैसे दुर्गाप्रसाद जी आपने सही कहा, ऐसी पौध बड़े पैमाने पर पनपी है और पनप रही है। मुझे लगता है इस देश में जुगाड़ कभी खत्म नहीं होंगे। भले ही हम किसी भी सदी के रहने वाले हों।
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